बहुत प्राचीन काल की बात है। एक बार देवता और असुर अमृत प्राप्त करने के लिए एकजुट हुए। उन्होंने मिलकर निर्णय लिया कि वे क्षितिज सागर (क्षीर सागर) का मंथन करेंगे, जिससे अमृत प्राप्त हो सके।
मंथन के लिए मंदराचल पर्वत को मथनी बनाया गया और वासुकी नाग को रस्सी। जब समुद्र मंथन आरंभ हुआ, तो सबसे पहले हलाहल विष निकला, जिसे भगवान शिव ने पी लिया और नीलकंठ कहलाए।
इसके बाद एक-एक करके कई दिव्य रत्न और वस्तुएं निकलीं — कामधेनु गाय, ऐरावत हाथी, कल्पवृक्ष, लक्ष्मी माता, और अंत में निकला अमृत।
जैसे ही अमृत कलश निकला, असुरों ने उसे छीन लिया और देवताओं को अमरता से वंचित करने की योजना बनाई। देवता चिंतित हुए और भगवान विष्णु से सहायता मांगी।
तब भगवान विष्णु ने “मोहिनी” नाम की एक सुंदर स्त्री का रूप धारण किया। मोहिनी इतनी सुंदर थी कि असुर उसे देखकर मोहित हो गए। मोहिनी ने कहा कि वह निष्पक्ष रूप से अमृत बाँटेगी। असुर मान गए।
मोहिनी ने चालाकी से अमृत का सारा भाग देवताओं को पिला दिया। इस तरह देवता अमर हो गए और असुर वंचित रह गए। एक असुर, राहु, ने मोहिनी को धोखा देकर अमृत पी लिया, लेकिन सूर्य और चंद्रमा ने उसे पहचान लिया। भगवान विष्णु ने तुरंत सुदर्शन चक्र से उसका सिर काट दिया। उसका सिर राहु और धड़ केतु कहलाए, जो आज भी ग्रहों के रूप में माने जाते हैं।
इस तरह भगवान विष्णु ने चालाकी और करुणा से देवताओं की रक्षा की और सृष्टि में संतुलन बनाए रखा।
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